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कौशल की कमी, उदासीनता और भ्रष्टाचार…!देश को मायूस करते आईएएस…!डी.सुब्बाराव – पूर्व गवर्नर आर.बी.आई.

संवाददाता by संवाददाता
March 26, 2022
in विविध दर्पण
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जनता की नजरों में आईएएस ने सही के पक्ष में खड़े होने का साहस भी खो दिया है…डी सुब्बाराव

क्या नेता हैं जिम्मेदार…?

क्या सिस्टम है जिम्मेदार…?

सिस्टम में स्मार्ट, ऊर्जावान और योग्य लोगों के टॉप पर पहुंचने का आश्वासन नहीं होता है और भ्रष्ट, आलसी और अयोग्य लोगों को बाहर नहीं किया जाता…

हकीकत ये है कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था, चाहे वह कितनी भी भ्रष्ट क्यों न हो, नौकरशाही को भ्रष्ट नहीं कर सकती है अगर वह एकजुट और अपने पेशे एवं लोकाचार, नैतिकता के उच्च मानकों के लिए प्रतिबद्ध है…

नई दिल्ली: पहले IAS का जिक्र होते ही ‘लाल बत्ती’ जेहन में घूम जाती थी। अब भले ही बत्ती न दिखे पर वो रुतबा जरूर कायम है। लेकिन आईएएस को लेकर देश की धारणा वो पहले वाली नहीं रही, जब उन्हें बेहद सम्मान भरी नजरों से देखा जाता था। क्या आईएएस ने देश को मायूस कर दिया है? आज के समय में आईएएस को लेकर जनता में जो धारणा बनी है वह एलीट क्लास के बड़े अफसर, अपना हित चाहने वाला, यथास्थिति को बनाए रखने वाले नौकरशाहों के समूह की है, जो हकीकत से दूर है और जो अपने विशेषाधिकारों के साथ और सोशल स्टेटस में जीते हैं। RBI के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव (Duvvuri Subbarao) ने अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि जनता की नजरों में आईएएस ने सही के पक्ष में खड़े होने का साहस भी खो दिया है। कौन है इसके लिए जिम्मेदार?

आईएएस जांच अधिकारी बनते तो….
पूर्व IAS अधिकारी सुब्बाराव कहते हैं कि पहले ऐसा नहीं था। 1970 के दशक के मध्य में वह नए-नए सेवा में आए थे। उस वक्त जब किसी घोटाले या कांड पर विपक्ष की ओर से सरकार पर हमले होते थे। मुख्यमंत्री को विधानसभा में खड़ा होना पड़ता था और घोषणा करते थे कि वह आईएएस अधिकारी को मामले की जांच करने के लिए नियुक्त करने रहे हैं। सदन में हंगामेदार बहस को खामोश करने के लिए यह एक घोषणा काफी होती थी। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। सुब्बाराव लिखते हैं कि आज अगर कोई सीएम ऐसा कहता है तो उस पर और शोरगुल मचेगा।
कब से शुरू हुआ पतन?
उन्होंने कहा कि कब यह पतन शुरू हुआ, इसकी कोई निश्चित तारीख सामने रखना मुश्किल है। जब देश को आजादी मिली और औपनिवेशिक शासन के समय के ICS के उत्तराधिकारी के तौर पर आईएएस अस्तित्व में आए तो इसे राष्ट्र निर्माण की दिशा में बड़ी पहल माना गया। वह भी ऐसे समय में जब लोग गरीब थे और समाज अशिक्षित था और देश लोकतंत्र की राह पर बढ़ चला था। कृषि विकास हो, भूमि सुधार, सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण, उद्योग को बढ़ावा, स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार, सामाजिक न्याय या कहिए कानून का शासन लागू करने के लिए आईएएस को एक डिलिवरी आर्म के तौर पर देखा गया।

आईएएस अधिकारियों ने भी इस महाअभियान को फ्रंट पर रहकर लीड किया और ग्राउंड जीरो से एक शानदार विकास प्रशासन का नेटवर्क खड़ा किया। इसकी बदौलत देश में आईएएस पद ने जनता के बीच अच्छी साख बनाई। हालांकि आगे के दशकों में वह प्रतिष्ठा घटने लगी। IAS ने अपनी खासियत गंवा दी। कौशल की कमी, उदासीनता और भ्रष्टाचार ने इस पद की गरिमा को बहुत नुकसान पहुंचाया। हालांकि यह नकारात्मक छवि कुछ अधिकारियों के कारण बनी लेकिन वह संख्या भी छोटी नहीं थी।
सिर्फ 25 प्रतिशत से चलता काम…
सुब्बाराव लिखते हैं कि एकबार एक मुख्यमंत्री ने मुझसे कहा था कि उनके अधीन काम करने वाले आईएएस अधिकारियों में करीब 25 फीसदी असंवेदनशील, भ्रष्ट या अयोग्य है। 50 प्रतिशत लोग खुशी-खुशी बिना काम के चैन की नौकरी कर रहे हैं और उन्हें अपने काम के लिए बाकी बचे हुए सिर्फ 25 प्रतिशत लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रधानमंत्री ने भी पिछले साल संसद में इसी तरह के विचार रखे थे जब उन्होंने ब्यूरोक्रेसी में ‘बाबू कल्चर’ की बात की थी।

IAS को क्या यह बेचैन नहीं करता? भर्ती परीक्षा, इंडक्शन ट्रेनिंग, सर्विस में ट्रेनिंग, स्व-सुधार के लिए सीमित अवसर, सख्त करियर प्रबंधन को आमतौर पर बलि का बकरा बनाया जाता है। निश्चित तौर पर इन क्षेत्रों में सुधार की गुंजाइश है लेकिन क्या IAS की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने वाले ये सबसे बड़े मसले हैं?
दंड और प्रोत्साहन
आईएएस के साथ सबसे बड़ी समस्या प्रोत्साहन और दंड की एक त्रुटिपूर्ण प्रणाली है। इस सेवा में आने का युवाओं में आज भी सपना होता है। पूर्व आईएएस कहते हैं कि सेवा में आज भी देश का सबसे बेस्ट टैलेंट आने की चाहत रखता है, युवा और तेज दिमाग वाले नौजवान ‘दुनिया को बदलने’ के जोश के साथ आते हैं। लेकिन जल्द ही वे आत्मतुष्टि, मौन स्वीकृति, आलसी बनकर रह जाते हैं और सही-गलत आंकने की नैतिकता गंवा देते हैं।

क्या नेता रोकते हैं?
आईएएस अधिकारी चाहेंगे कि दुनिया यह माने कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नेता उनके काम के रास्ते में आड़े आ जाते हैं। आपने कई आईएएस के संस्मरणों पर गौर किया होगा जिसमें किस्सा रहता है, ‘मैं बहुत अच्छा काम कर रहा था लेकिन राजनेता आड़े आ गए और मुझे रोक दिया।’ हालांकि मैं राजनीतिक हस्तक्षेप की चुनौती को कम महत्वपूर्ण या तुच्छ नहीं समझना चाहता, लोकतंत्र में यह होता है। लेकिन आईएएस के बौद्धिक और नैतिक पतन के लिए राजनेताओं को दोष देना केवल उनकी बात को सही दिखाने का एक तरीका है। राजनेता जरूर लाभ दिखाएंगे लेकिन अधिकारियों को समझना चाहिए कि क्या सही होगा। हालांकि होता ये है कि नैतिक रूप से कमजोर कुछ अधिकारी प्रलोभन के आगे झुक जाते हैं और दूसरे लोग भी उसका पालन करने लगते हैं, या तो वे पुरस्कारों से आकर्षित होते हैं या केवल करियर बचाने के लिए ऐसा करते हैं।
वह कहते हैं कि हकीकत ये है कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था, चाहे वह कितनी भी भ्रष्ट क्यों न हो, नौकरशाही को भ्रष्ट नहीं कर सकती है अगर वह एकजुट और अपने पेशे एवं लोकाचार, नैतिकता के उच्च मानकों के लिए प्रतिबद्ध है। अफसोस की बात है कि यह आईएएस की कहानी नहीं है।

यहां पीएम की जांच कर रहा कैबिनेट सचिव स्तर का अफसर…
सुब्बाराव आगे कहते हैं कि गौर कीजिए, यूके के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन पर लगे ‘पार्टी-गेट’ के आरोपों की जांच हमारे कैबिनेट सचिव और दिल्ली पुलिस के बराबर के ब्रिटिश अधिकारी कर रहे हैं। और यूके संसद के किसी एक सदस्य या विपक्षी सांसद ने जांच पर संदेह नहीं किया है। हमारे सिस्टम में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। यह दिखाता है कि हमारे नेताओं ने ही नहीं, नौकरशाही ने भी आदर-सम्मान खो दिया है।

तो क्या प्रोत्साहन और दंडित करने में समस्या है…? दरअसल, शुरू से आईएएस प्रमोट होते जाते हैं और उन पर प्रदर्शन और परिणाम का कोई प्रेशर नहीं दिखता है। सिस्टम में स्मार्ट, ऊर्जावान और योग्य लोगों के टॉप पर पहुंचने का आश्वासन नहीं होता है और भ्रष्ट, आलसी और अयोग्य लोगों को बाहर नहीं किया जाता है। अधिकारियों के अपने ज्ञान और कौशल को बढ़ाने के लिए कोई मोटिवेशन नहीं है। आईएएस समूह में सुधार उनकी योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए और ये बेहद जरूरी है।

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